खैर भीतरघात हो या खुलाघात ये बहुत बुरी चीज है. विधानसभा, लोकसभा ही नहीं पंचायतों एवं नगरीय निकायों के चुनाव में भी यह बीमारी घुस गई है. मै स्वयं 1998 के विधान सभा चुनाव में खुलाघात और भीतरघात का स्वाद चख चुका हूँ , तब मैंने भारतीय जनता पार्टी की टिकिट पर अभनपुर विधानसभा से चुनाव लड़ा था और बागी उम्मीदवार तथा भीतरघात के चलते लगभग 7000 मतों से हार गया था लेकिन 15 वर्षों से मैंने इसका जिक्र तक नहीं किया. मैंने सभी भीतरघातियों को धीरे- धीरे मुख्यधारा में लाकर उन्हें प्रायश्चित करने का अवसर दिया. आवश्यकता पड़ने पर उनकी मदद भी की. यह अलग बात है कि उस आघात का दुष्परिणाम मै आज तक भुगत रहा हूँ ---
हमसे मत पूछो कैसे, मंदिर टूटा सपनों का,
लोगों की बात नहीं है, ये किस्सा है अपनों का,
कोई दुश्मन ठेस लगाये, तो मीत जिया बहलाये,
मनमीत जो घाव लगाये, उसे कौन मिटाये.
चिंगारी कोई भड़के, तो सावन उसे बुझाये
सावन जो अगन लगाये, उसे कौन बुझाये,