
अंग्रेजी शासन काल में सबका लक्ष्य एक था ”स्वराज” लाना लेकिन स्वराज के बाद हमारा रूप क्या होगा ? हम किस दिशा में आगे बढे़गे ? इस बात पर ज्यादा विचार ही नहीं हुआ. पं. दीनदयाल उपाध्याय ने 1964 में कहा था कि हमें ”स्व” का विचार करने की आवश्यकता है. बिना उसके ”स्वराज्य” का कोई अर्थ नहीं. स्वतन्त्रता हमारे विकास और सुख का साधन नहीं बन सकती। जब तक हमें अपनी असलियत का पता नहीं तब तक हमें अपनी शक्तियों का ज्ञान नहीं हो सकता और न उनका विकास ही संभव है. परतंत्रता में समाज का ”स्व”दब जाता है. इसीलिए राष्ट्र स्वराज्य की कामना करता हैं जिससे वे अपनी प्रकृति और गुणधर्म के अनुसार प्रयत्न करते हुए सुख की अनुभूति कर सकें. प्रकृति बलवती होती है, उसके प्रतिकुल काम करने से अथवा उसकी ओर दुर्लक्ष्य करने से नाना प्रकार के कष्ट होते हैं. प्रकृति का उन्नयन कर उसे संस्कृति बनाया जा सकता है, पर उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती. आधुनिक मनोविज्ञान बताता है कि किस प्रकार मानव-प्रकृति एवं भावों की अवहेलना से व्यक्ति के जीवन में अनेक रोग पैदा हो जाते हैं, ऐसा व्यक्ति प्रायः उदासीन एवं अनमना रहता है. उसकी कर्म-शक्ति या तो क्षीण हो जाती है अथवा विकृत होकर वि-पथगामिनी बन जाती है. व्यक्ति के समान राष्ट्र भी प्रकृति के प्रतिकूल चलने पर अनेक प्रकार की व्याधियों का शिकार हो जाता है, आज भारत की अनेक समस्याओं का मूल कारण यही है.
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने मानव शरीर को आधार बना कर राष्ट्र के समग्र विकास की परिकल्पना की. उन्होनें कहा कि मानव के चार प्रत्यय है पहला मानव का शरीर , दूसरा मानव का मन , तीसरा मानव की बुद्धि और चौथा मानव की आत्मा. ये चारोँ पुष्ट होंगें तभी मानव का समग्र विकास माना जायेगा. इनमें से किसी एक में थोड़ी भी गड़बड़ है तो मनुष्य का विकास अधूरा है. जैसे यदि किसी के शरीर में कष्ट हो और उसे 56 भोग दिया जाय तो उसकी खाने में रूचि नहीं होगी. यदि कोई व्यक्ति बहुत ही स्वादिस्ट भोजन कर रहा है उसी समय यदि कोई अप्रिय समाचार मिल जाय तो उसका मन खिन्न हो जायेगा. भोजन तो समाचार मिलने के पूर्व जैसा स्वादिस्ट था अब भी वैसा ही स्वादिस्ट है लेकिन अप्रिय समाचार से व्यक्ति का मन खिन्न हो गया इसीलिये उसके लिए भोजन क्लिष्ट हो गया. यानी भोजन करते वक्त “आत्मा” को जो सुख मिल रहा था वह मन के दुखी होने से समाप्त हो गया. पं. दीनदयाल जी ने कहा कि मनुष्य का शरीर,मन, बुद्धि और आत्मा ये चारोँ ठीक रहेंगे तभी मनुष्य को चरम सुख और वैभव की प्राप्ति हो सकती है.
जब किसी मनुष्य के शरीर के किसी अंग में कांटा चुभता है तो मन को कष्ट होता है , बुद्धि हाथ को कांटा निकालने के लिए निर्देशित करती है और हाथ चुभे हुए स्थान पर पल भर में पहुँच जाता है और कांटें को निकालने की चेष्टा करता है. यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. सामान्यतः मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन चारोँ की चिंता करता है. मानव की इसी स्वाभाविक प्रवृति को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की संज्ञा दी. उन्होंने मनुष्य की इस प्रवृति को राष्ट्र के परिपेक्ष्य प्रतिपादित करते हुए कहा कि राष्ट्र की स्वाभाविक प्रवृति ही उसकी संस्कृति है. उन्होंने कहा कि भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थ-नीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखना होगा. भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा ही होगी. विश्व को यदि हम कुछ सिखा सकते हैं तो उसे अपनी सांस्कृतिक सहिष्णुता एवं कर्त्तव्य-प्रधान जीवन की भावना की ही शिक्षा दे सकते हैं. राजनीति अथवा अर्थनीति शायद हमको उनसे ही उल्टे कुछ सीखना पड़े. पं. उपाध्याय ने कहा कि अर्थ, काम और मोक्ष के विपरीत धर्म की प्रमुख भावना ने भोग के स्थान पर त्याग, अधिकार के स्थान पर कर्त्तव्य तथा संकुचित असहिष्णुता के स्थान पर विशाल एकात्मता प्रकट की है. इसी भावना के साथ हम विश्व में गौरव के साथ खड़े हो सकते हैं.
लेखक - अशोक बजाज , पूर्व अध्यक्ष जिला पंचायत रायपुर